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क्या आप वाकई मुस्लिमों को जानते हैं?
((Translated by Mayank Saxena))
12 अप्रैल, 2014
(12 अप्रैल, 2014 के इस लेख को लिखे गए अब एक साल से अधिक समय हो चला है, आम चुनाव हो गए हैं और देश में नई सरकार आ गई है। चारों ओर वैसा ही माहौल परिपक्व हो चुका है, जिसका ख़तरा भाप कर ये लेख लिखा गया था, ऐसे में जब पुणे में सिर्फ दाढ़ी और टोपी की वजह से एक बेगुनाह की पीट-पीट कर जान ले ली जाती है; ये लेख अति महत्वपूर्ण हो जाता है। मनुष्य होने के नाते दूसरे मनुष्य के जीवन और गरिमा के सम्मान के अधिकार और देश में बढ़ते वैमनस्य के खात्मे के लिए ये लेख एक अहम कड़ी है क्योंकि न हम तालिबान हैं, न कबीलाई, न धनपशु और न ही किसी के कान में पिघला सीसा उड़ेल उसके वक्ष को तीर से बेध देने वाले लोग। दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह बने उसकी उम्मीद के साथ ये अनुवाद आप सभी के लिए।)
2014 आम चुनावों के साथ ही वही बातें दोबारा कहने का मौका आ गया है। परिष्कृत प्रचलित उपमाओं और भारतीय ही नहीं पाश्चात्य मीडिया के भी मूलभूत पक्षपातपूर्ण रवैये से प्रेरित व्यापक दुष्प्रचारों से प्रभावित कई लोग दुनिया के दूसरे बड़े धर्म को लेकर मिथकीय भ्रमों के शिकार हैं। ये उनक भ्रमों का खुलासा करने का ही एक प्रयास है।
मिथक: मुस्लिम देश कभी धर्मनिरपेक्ष नहीं होते। मुस्लिम अपने मुल्कों में अल्पसंख्यकों को बर्दाश्त नहीं कर पाते लेकिन दूसरे देशों में अल्पसंख्यक अधिकारों की मांग करते हैं।
दुनिया की सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया है, जिसकी कुल आबादी 25 करोड़ है, जो पाकिस्तान से भी ज़्यादा है। इंडोनेशिया एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। बल्कि इसकी आबादी भारत जैसी ही है, जहां 88 फीसदी मुस्लिम, 9 फीसदी ईसाई, 3 फीसदी हिंदू, 2 बौद्ध आदि हैं। (भारत से तुलनात्मक अध्ययन करें तो यहां 80 फीसदी हिंदी, 13.4 फीसदी मुस्लिम और 2.3 फीसदी ईसाई हैं।) इंडोनेशिया का राष्ट्रीय शासकीय कथ्य “विभिन्नता में एकता” है। जी हां, इंडोनेशिया में ङी कभी कभार दंगे और बम धमाके होते हैं, जैसे कि भारत में।
वास्तविकता में दुनिया के अधिकतर मुस्लिम देश धर्म निरपेक्ष हैं। कई और बड़े उदाहरणों के तौर पर तुर्की, माली, सीरिया, नाइजर और कज़ाकिस्तान को देखा जा सकता है। इस्लाम के “राजधर्म” होने के बावजूद भी, बांग्लादेश की सरकार में क़ानून धर्म निरपेक्ष नहीं हैं। यही कई और देशों का भी सच है। दुनिया में सिर्फ 6 देश हैं, जहां घोषित तौर पर इस्लामिक शरीयत, क़ानून का आधार है और उनकी आबादी, इंडोनेशिया, तुर्की और तज़ाकिस्तान की कुल आबादी के बराबर है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुस्लिमों देशों में अधिकांश सेक्युलर हैं और दुनिया के अधिकतर मुस्लिम धर्मनिरपेक्ष सरकारों के तहत रहते हैं।
मिथक 2: सभी मुस्लिम आतंकी नहीं होते लेकिन सभी आतंकी मुस्लिम होते हैं।
यदि हम आतंकी कौन है, इस विषय में सरकारी परिभाषा भी स्वीकार कर लें तो भी यह पूर्ण रूपेण असत्य है। भारत में ग़ैरक़ानूनी गतिविधि प्रतिबंध एक्ट के तहत प्रतिबंधित आतंकी संगठनों में से एक तिहाई भी मुस्लिम आतंकी संगठन नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी दुनिया में सबसे ज़्यादा आत्मघाती बम धमाके करने वाला संगठन श्रीलंका में एलटीटीई है, जिसके अधिकतर सदस्य हिंदू या ईसाई धर्म से ताल्लुक रखते हैं।
यह भी सच नहीं है कि भारत में अधिकतर हिंसा मुस्लिम संगठनों की ओर से होती है। 2005 से 2014 के बीच (साउथ एशिया पोर्टल के मुताबिक) इससे दोगुने लोग पूर्वोत्तर के उग्रवादियों और वाम अतिवादियों की हिंसा में मारे गए। ये सभी ग़ैर मुस्लिम संगठन हैं और इस दौरान हिंसा में रत सबसे बड़ा पूर्वोत्तर का उग्रवादी संगठन उल्फा, हिंदू उच्च जातियों द्वारा संचालित है।
दूसरी ओर सरकारी तौर पर प्रचलित “आतंकवाद” की परिभाषा विरोधाभासी है। एक बम धमाके में 20 लोगों की हत्या आतंकवाद है, जबकि 1984 में दिल्ली, 2002 में गुजरात में हज़ारों लोगों की हत्या अथवा मुज़फ्फरनगर में 40 और ओडिशा में 2008 में 68 लोगों की हत्या, आतंकवाद नहीं है। हर दंगे की तैयारी योजनाबद्ध तरीके से होती है, जिसमें हथियारों के संग्रहण से सुनियोजित हमले तक होते हैं। तो फिर इनको आतंकवाद क्यों नहीं माना जाता है?
मिथक 3: मुस्लिम सदैव कट्टरपंथी और बाकी धर्मों की अपेक्षा अधिक धर्मानुकरण करते रहे हैं।
हालिया इतिहास इस मिथक को झूठ प्रमाणित करते हुए साफ करता है कि वर्तमान मुस्लिम कट्टरपंथ की उत्पत्ति कहां से हुई। ज़्यादा नहीं महज 40-60 वर्ष पूर्व तक दुनिया में मुस्लिम आबादी वाले ज़्यादातर इलाके जैसे कि इंडोनेशिया, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में सबसे मज़बूत राजनैतिक ताक़तें धर्मनिरपेक्ष वामपंथी थी। इसके अलग-अलग रूप थे: इंडोनेशियाई कम्युनिस्ट पार्टी, मिस्र, सीरिया और इराक़ में नासिर और बाथ पार्टी की सरकार, मोहम्मद मोसादेग की ईरानी सरकार आदि। इन देशों में अमेरिका और उसके सऊदी अरब जैसे सहयोगियों ने धार्मिक कट्टरपंथी-दक्षिणपंथी ताक़तों को हथियार, पैसा और तमाम मदद देकर मज़बूत किया, वजह थी इन देशों की धर्मनिरपेक्ष वामपंथी सरकारों से विरोध। पीएलओ से निपटने के लिए हमास का इज़रायल द्वारा इस्तेमाल किसी से छिपा नहीं है। 80 के दशक में यह चरम पर था, जब अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में चरमपंथी गुटों को धन और प्रशिक्षण दिया, जिन्होंने बाद में अल क़ायदा बनाया। इसी दौरान पाकिस्तान में अमेरिका ज़िया उल हक़ की फ़ौजी हुक़ूमत को भी मदद देता रहा, जिसने पाकिस्तान का इस्लामीकरण करने की क़वायद शुरु की। वामपंथी ताक़तों को नष्ट करने के लिए अमेरिका ने जिस तरह से इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तों को बढ़ावा दिया, आज मध्य पूर्व में इस्लामिक अतिवादी आंदोलन की ताक़त उसी का नतीजा है।
इस सब के साथ ये दोहराना ज़रूरी है कि इस्लामिक कट्टरपंथ एक राजनैतिक अवधारमणा है, जो विशे परिस्थितियों में बनी; ठीक वैसेही जैसे कि हिंदुत्व, ईसाई कट्टरपंथ या फिर कोई और कट्टरपंथ या दक्षिणपंथी आंदोलन होता है। मुस्लिम कट्टरपंथ के मिथक के पीछे भारत में अपना साम्राज्य फैलाने और बनाए रखने की यूरोपीय आकांक्षा का इतिहास है। और लोग उसी उपनिवेशवादी छल को सत्य की तरह दोहराते रहते हैं।
मिथक 4: मुस्लिम ही हमेशा हिंसा शुरु करते हैं। हिंदू ‘आत्मरक्षा’ अथवा ‘प्रतिक्रिया’ करते हैं।
दुनिया में जनसंहारों में शामिल हर संगठन ने इसे प्रतिहिंसा या आत्मरक्षा का ही नाम दिया है। 11 सितम्बर के अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमले को भी इराक़ और फिलीस्तीन में अमेरिका और इज़रायल द्वारा लाखों लोगों की हत्या की प्रतिहिंसा के तौर पर तर्कसंगत बताया गया था। अगर आप दिल्ली और अहमदाबाद धमाकों के पहले पुलिस को भेजी गई ई मेल्स पर भरोसा करें तो ये भी गुजरात में मुस्लिमों के जनसंहार और पुलिस के ज़ुल्म का प्रतिकार थे। 2008 में एक वीएचपी नेता की हत्या का बदला लेने के लिए ईसाईयों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी। इतिहास में और पीछे जाएं तो नाज़ी पार्टी ने भी पहले सत्ता समर्थित दंगों क्रिस्टल नाइट को एक जर्मन राजनयिक की हत्या की प्रतिहिंसा और ख़ुद को अंतर्राष्ट्रीय यहूदियत से रक्षा का नाम देकर पर जायज़ ठहराया था, जिसमें सैकड़ों यहूदी मारे गए थे, उनके उपासनागृह और घर हज़ारों की संख्या में जला दिए गए थे।
कारण सीधा सा है, “लोगों को किसी अमानवीय कृत्य के लिए राज़ी करने का एकमात्र तरीका उनको ये विश्वास दिलाना है कि वे या तो ये सब आत्मरक्षा में कर रहे हैं या फिर प्रतिशोधात्मक न्याय के लिए।” प्रतिक्रिया का नाम लेकर शुद्ध अमानवीयता तो सहज ही है। जो लोग ये कहते हैं कि हिंदू सिर्फ प्रतिक्रिया करते हैं, वे क्या बिहार के उग्रवादियों द्वारा मराठियों के खिलाफ़ किसी हिंसा को एमएनएस और शिवसेना द्वारा की गई हिंसा की प्रतिक्रिया मान कर टाल देंगे? क्या वे पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठनों द्वारा दिल्ली में पूर्वोत्तर के लोगों के साथ होने वाली हिंसा के बदले में दिल्ली में किए गए किसी जनसंहार को स्वीकारेंगे? ये एक समाज के तौर पर हमारे बिल्कुल निचले स्तर पर आ खड़े होने का प्रतीक है कि हम जनसंहार और बलात्कार को सिर्फ आत्मरक्षा और प्रतिक्रिया कह कर न्यायोचित ठहरा देते हैं।
मिथक 5: हिंदू धर्म के आधार पर हत्या नहीं करते। सिर्फ मुस्लिम ऐसा करते हैं, क्योंकि उनका धर्म ऐसा कहता है।
गुजरात में 2002 में, दिल्ली में 1984 में और 1989 में भागलपुर में हुए सभी दंगों में ज़्यादातर मरने वाले अल्पसंख्यक थे (मुस्लिम, सिख आदि)। उसके बाद हमारे सामने हाल ही में हिंदूवादी संगठनों द्वारा किए गए बम धमाके हैं। इन मामलों में ज़्यादातर हमलावर हिंदू थे और हिंदूवादी संगठनों ने उनको ग़ैर हिंदुओं पर इस हमले के लिए प्रेरित किया था। क्या ऐसा कहता ठीक होगा कि उन्होंने ऐसा किया क्योंकि हिंदुत्व की ये ज़रूरत थी? बिल्कुल भी नहीं, साफतौर पर ऐसी हिंसा में लिप्त संगठनों का इरादा सीधे तौर पर एक विशेष राजनैतिक उद्देश्य को हासिल करना था, जिसे मज़हबी रंग में रंग दिया गया था। ठीक वही उद्देश्य किसी इस्लामिक अतिवादी संगठन का भी होता है।
हर मज़हबी समूह के लिए दूसरे मज़हबी समूह से विवाद एक अहम आवश्यक्ता होती है, लगभग हर धर्मग्रंथ में ऐसे अंश हैं जो ज़ुल्म को बढ़ावा देते हैं। (मनुस्मृति में दलितों और महिलाओं के प्रति विचार और ओल्ड टेस्टामेंट में ग़ैर यहूदियों के जनसंहार की बातें अहम उदाहरण हैं।) इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन धर्मों के अनुयायी इनका शाब्दिक अर्थ व्यवहार में ले आते हैं। हिंदू, ईसाई या किसी भी और समुदाय की अधिकतम आबादी की ही तरह मुस्लिमों की भी अधिकतर आबादी ने न कभी इस तरह की हत्याएं की हैं और न वे करेंगे।
मिथक 6: मुस्लिमों में एकता होती है और हिंदुओं में फूट होती है, जिससे वे कमज़ोर पड़ते हैं।
हर चुनावी शोध में ये साफ हुआ है कि मुस्लिम भी किसी अन्य समुदाय की तरह ही वोट करते हैं, सुविधाओं, प्रत्याशी, पार्टी की पसंद के मुताबिक। व्यवहार में मुस्लिम बाकी मज़हबों से अधिक संयुक्त नहीं हैं; उनके आंतरिक धार्मिक, जातीय, लैंगिक, क्षेत्रीय, भाषाई और असंख्य अन्य विभाजक रेखाएं हैं, ठीक किसी और भारतीय समुदाय की ही तरह। यदि मुस्लिमों में एकता होती तो ये भी अपेक्षा की जानी चाहिए थी कि वे संसद में बेहतर प्रतिनिधित्व पाते। पिछली लोकसभा में सिर्फ 5.5 फीसदी मुस्लिम सांसद थे, जबकि वो देश की आबादी के 13 फीसदी से अधिक हैं।
यदि कोई परिस्थिति मुस्लिमों के संयुक्त रूप से रहने को परिभाषित कर सकती है तो वे सिर्फ वह घेट्टो हैं, जहां भेदभाव के कारण मुस्लिम रहने को मजबूर हैं। जबकि चुनावों में जैसे अपनी भौतिक सुरक्षा के लिए जैसे अधिकतर ‘बिहारी’ शिवसेना को वोट नहीं देंगे, ठीक वैसे ही ज़्यादातर मुस्लिम बीजेपी को वोट नहीं देंगे। पुनः यह सहज बुद्धि है। एक दल जिसने अपनी संरचना ही आपको विदेशी, आतंकी और देशद्रोही कह कर स्थापित की है, वो आपका वोट कभी नहीं जीत सकेगी।
मिथक 7: सरकार मुस्लिमों का पक्ष लेती है और उनका ख़्याल रखती है।
विरोधाभास ही है कि आधिकारिक आंकड़े भी मुस्लिमों के खिलाफ सुनियोजित भेदभाव दिखाते हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में तथ्य है कि मुस्लिम बहुल इलाकों में बस स्टॉप, सड़कों और बैंक ब्रांचों की संख्या भी, पड़ोसी हिंदू बहुल इलाकों से कम है। औसतन मुस्लिम किसी और अल्पसंख्यक समुदाय को मिलने वाले ऋण के मुकाबले सिर्फ 2/3 ही प्राप्त करते हैं। किसी और समुदाय के मुकाबले कच्चे घरों में रहने वाले मुस्लिमों की संख्या और उनमें गरीबी के आंकड़े किसी भी और समुदाय की तुलना में अधिक है। 3 फीसदी से भी कम मुस्लिम आईएएस और 4 फीसदी सेभी कम मुस्लिम आईपीएस हैं, जबकि उनकी आबादी देश की आबादी के 13 फीसदी से अधिक है। कुल मिला कर देखें तो सच्चर कमेटी ने मुस्लिमों के हालातों को सामाजिक-आर्थिक रूप से दलितों-आदिवासियों के हालात जैसा ही बताया है।
2007 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक, निजी क्षेत्र की कम्पनियों के साक्षात्कारों में नौकरी के आवेदनकर्ताओं में दलितों आवेदनकर्ताओं को सामान्य जातियों की तुलना में एक तिहाई और मुस्लिम आवेदनकर्ताओं को दो तिहाई कम साक्षात्कार के अवसर दिए गए। यदि आवेदन एक जैसे भी होते, तब भी दलित नामों की प्रायिकता एक तिहाई और मुस्लिम नामों की प्रायिकता दो तिहाई कम ही होती। सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में मुस्लिमों को हमेशा अवसरों की समानता नहीं मिलती है।
मिथक 8: लेकिन हिंदू जम्मू-कश्मीर में भूमि नहीं खरीद सकते हैं।
कोई भी ग़ैर कश्मीरी, जम्मू कश्मीर में ज़मीन नहीं खरीद सकता, जैसे कि कोई ग़ैर हिमाचली, हिमाचल प्रदेश में ज़मीन नहीं खरीद सकता है, नागालैंड में बाहरी लोग बिना इजाज़त प्रवेश नहीं कर सकते हैं, ग़ैर उत्तराखंडी, उत्तराखंड में सिर्फ छोटे निवास भूखंड ही खरीद सकते हैं, यही नहीं देश के कई इलाकों में स्थानीय आबादी के हितों की रक्षा के लिए इस तरह के क़ानून लागू हैं। इस मुद्दे का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
मिथक 9: मुस्लिमों की आबादी, हिंदुओं की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ रही है। मुस्लिम पुरुष एक से अधिक पत्नियां रखते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य बहुसंख्यक बनना है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक युवा मुस्लिम महिलाओं और युवा हिंदू महिलाओं की प्रजनन दर, समान आर्थिक स्तर में समान है। मुस्लिम परिवारों में प्रजनन दर में आंशिक वृद्धि की वजह ये है कि औसत मुस्लिम परिवार, औसत हिंदू परिवारों के मुकाबले अपेक्षाकृत निर्धन होते हैं। इसे समझने के लिए कोई आश्चर्यजनक बुद्धि नहीं चाहिए कि 25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य केरल में प्रजनन दर, देश में सबसे कम है। गरीबी और सुविधाओं का अभाव धर्म की अपेक्षा बच्चों की संख्या निर्धारित करने वाला बड़ा कारक है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु और केरल में मुसलमानों के यहां जन्म दर, उत्तर प्रदेश, बिहार या राजस्थान के हिंदुओं से भी कम है।
जहां तक मुस्लिमों के बहुविवाह की बात है तो एक चरम सत्य है कि इसका आबादी बढ़ने से कोई ताल्लुक नहीं है क्योंकि अगर किसी मुस्लिम पुरुष की दो पत्नियां हैं तो कोई अन्य पुरुष अविवाहित होगा क्योंकि देश में स्त्री-पुरुषों की आबादी लगभग बराबर है। साथ ही राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक 5.8 फीसदी हिंदू पुरुषों की एक से अधिक पत्नियां हैं, जबकि सिर्फ 5.73 फीसदी मुस्लिम पुरुषों की एक से अधिक पत्नियां हैं।
मिथ 9: पाकिस्तान बनने के साथ ही मुस्लिमों को अपना देश मिल गया, अतः उनको ‘हमारा’ देश छोड़ देना चाहिए था।
हिंदू और मुस्लिमों के लिए पृथक राष्ट्र की बात करने वाले शुरुआती नेता, बाद में हिंदू महासभा के सदस्य हो गए। 1905 में ये मांग करने वाले भाई परमानंद बाद में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने। मुस्लिम लीग ने पृथक पाकिस्तान की मांग 1940 में की थी, और तब भी ये मांग एक राजनैतिक दल की राजनीतिक मांग थी। बड़ी संख्या में मुस्लिमॆ ने पाकिस्तान के विचार का विरोध किया, इसमें देश का सबसे बड़ा इस्लामिक दीनी तालीम का मरकज़ देवबंद भी था और साथ में कांग्रेस के अध्यक्ष-स्वतंत्रता सेनानी मौलाना आज़ाद। पाकिस्तान एक राजनैतिक मांग थी, न कि सभी मुस्लिमों की मांग।
संक्षेप में ये कहा जा सकता है कि “मुस्लिम भी मनुष्य हैं, वो भी किसी और समुदाय जैसी ही विविधता और मुक्त विचार के साथ मुस्लिमों के खिलाफ घृणा के बढ़ते प्रचार के माहौल में ये आवश्यक है कि इस तरह के विभाजक मिथकों को खारिज किया जाए और इसकी जगह एक ऐसी दुनिया के पक्ष में खड़ा हुआ जाए जो मनुष्य और उसके सम्मान की कीमत जानता हो।”
(Translated from Kafila)
http://kafila.org/2014/04/12/some-myths-about-muslims/
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