Tuesday, November 4, 2014

आरएसएस का भारतीय परम्पराओं का दर्शन कटु और संकीर्ण है: महेश भट्ट कम्युनलिज़्म कॉम्बेट और हिल्लेले टीवी



प्रेस विज्ञप्ति
3.11.2014
आरएसएस का भारतीय परम्पराओं का दर्शन कटु और संकीर्ण है: महेश भट्ट
कम्युनलिज़्म कॉम्बेट और हिल्लेले टीवी
 युवा भारतीय फिल्मकारों के लिए प्रख्यात फिल्मकार महेश भट्ट का संदेश है कि अपने दृष्टिकोण को आरएसएस द्वारा प्रसारित भारतीयता और हिंदुत्व के कड़वे और घृणासिंचित संस्करण से प्रभावित बिना होने दिए, इस रचनात्मक माध्यम का इस्तेमाल असहमति जताने में करें, जो कि देशप्रेम का मूल तत्व है। महेश भट्ट ने यह बातें तीस्ता सीतलवाड़ के के साथ कम्युनलिज़्म कॉम्बेट और हिल्ले ले टीवी के लिए दिए गए एक साक्षात्कार में कही।
तीस्ता सीतलवाड़ के साथ इस सप्ताह कम्युनलिज़्म कॉम्बेट के विशेष साक्षात्कार में देखें क्या कहते हैं मशहूर और बहुआयामी फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट, सिर्फ www.sabrang.com और www.youtube.com पर HILLELE TV पर।
English Interview
 Hindi Interview

 भारतीय परम्परा की दृष्टि इतनी उदार रही है कि 2500 साल पहले हिंदुओं के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक नगर वाराणसी में बुद्ध हिंदू धर्म के मूल आधार में जाति व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा रहे थे, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय समाज के उसी कटु और संकीर्ण विचार को आत्मसात करता है, जिसको मानना भारत की विभिन्नता और बहुलता को नकारना है, जो इस देश की मौलिकता और शक्ति है।ये कहना है महेश भट्ट का, इस अहम साक्षात्कार में, जिसमें वे 1992-93 के उस अंधकाल को भी टटोलते हैं, जब मुंबई उनके जीवन के एक निजी हिस्से को झुलसाती हुई जल गई, जिसका गुस्सा 1998 में उनकी अहम फिल्म ज़ख्म में झलका।  
मूल्यों के स्थान पर लाभ को चुन कर एक धुर दक्षिणपंथी सरकार, जिस की विचारधारा हमारे संविधान को स्थापित करने वाले हमारे पूर्वजों के ही खिलाफ है, को सत्ता में लाने वाली युवा पीढ़ी से महेश भट्ट पूछते हैं, क्या लोकतंत्र के बगैर कोई भी विकास हो सकता है? क्या स्वतंत्रता के बिना उन्नति संभव है? वे राष्ट्र जो असहिष्णु, अखंडतावादी और बहुमतवादी हो जाते हैं, वे जड़ता के जोखिम की ओर बढ़ते हैं, जहां संस्कृति मृतप्राय हो जाती है और भय विशाल हो जाता है। वे कहते हैं कि यह भारत को मध्यपूर्व की ओर ले जाने की कोशिश है, जहां सारी महात्वाकांक्षाएं विशालकाय ढांचे, फ्लाईओवर और पुल बनाने की ओर बढ़ती हैं, जबकि मनुष्यों को निजी तौर पर मनुष्य के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है।   
ज़ख़्म फिल्म में महेश भट्ट का किरदार कर रहे अजय देवगन कहते हैं, मां और मुल्क बदले नहीं जा सकते जब वो अपनी मां शीरीन मोहम्मद अली को दफ़नाने का दृढ़ निश्चय कर चुके होते हैं। जबकि बाहर भीड़ खड़ी शुद्धिकरण और राष्ट्र की सफाई (हमेशा की तरह) के नारे लगा रही होती है और अजय अपनी मां को शिया कब्रिस्तान ले जाने का रास्ता ढूंढ रहे होते हैं (मुंबई, 1992-92 का परिदृश्य)। महेश भट्ट के बचपन का किरदार निभा रहा बाल कलाकार आंसुओं के साथ, अपनी मां बनी पूजा भट्ट से कहता है, डैडी आप से इसलिए शादी नहीं कर सके न, क्योंकि आप मुसलमान हैं? क्या हिंदू मुसलमान से शादी नहीं कर सकता?” शीरीन बनी पूजा, जवाब देती हैं, हो सकती है बेटा, पर आपकी दादी जैसे कुछ लोगों को यह मंज़ूर नहीं है। तेरे डैडी ने तेरी दादी को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन हमारा प्यार उनकी नफ़रत के सामने कम पड़ गया। जब भी खून खराबे और नैतिक गुंडागर्दी के लव जेहाद जैसे नए हथकंडे सामने आते हैं, 16 साल पुराने ये संवाद फिर से ज़िंदा हो जाते हैं।   
एनडीए की दमनकारी सरकार ने महेश भट्ट को फिल्म में मुंबई की सड़कों पर भगवा बाज़ूबंद पहने दृश्यों को डिजिटलीकरण के द्वारा बदलने और पुलिस की अलग अलग रैंक में फैली साम्प्रदायिकता से जुड़े दृश्य हल्के करने को मजबूर किया गया। हर फिल्मकार के लिए राजनीति, निजी मसला है, ये समझाते हुए महेश भट्ट कहते हैं, वे दृश्य मेरे लिए बाबरी मस्जिद पर चढ़ी विद्रूप भीड़ का चित्रांकन थे। मेरी मां, ने असहिष्णु नागर ब्राह्मण जाति की वजह से तकलीफ़ झेली, जिससे कि मेरे पिता थे। महेश भट्ट कहते हैं कि मुंबई की सड़कों पर कई साल बाद जो घट रहा था, वह मेरे जीवन में वर्षों पहले घटे घटनाक्रम का बड़े स्तर का संस्करण था।    
भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू के कारण ही देश में विभाजन का दंश झेला जा सका और अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस कर सके, जिनकी संवेदनशीलता को महात्मा गांधी ने आकार दिया था, जिनको कनॉट प्लेस में एक मुस्लिम की दुकान को आग लगाने के लिए जाती, हत्यारी भीड़ का पीछा करते देखा जा सकता था। दिल्ली की वर्तमान सत्ता द्वारा नेहरू के अपमान के पीछे राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को नीचा दिखाने के लिए इतिहास बदलने की भद्दी कोशिश है। हालिया साम्प्रदायिक शक्तियों के मज़बूत होने का बड़ा कारण धर्मनिरपेक्ष दलों का कट्टरपंथी और रूढ़िवादी ताकतों का सामना करने में असफल रहना है।   









Bhatt also speaks about his successful efforts to breach the Indo-Pak divide through joint productions even though hate mongerers have dubbed him an ‘ISI agent’ for these productions. How do you deal with the hatred? You have to take it on your chin and always remember that it is a price you have to pay for being you! Even the Mahatma was the targeting of bitter hatred, says Bhatt.
भट्ट कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के नव उदारीकरण के दौर उदय से पहले का बॉलीवुड और हिंदी सिनेमा, भारतीय राष्ट्र के निर्माण के मूल्यों से गुंथा हुआ था, जहां बहुलता का संरक्षण और विविधता का उत्सव था। वे विस्तार देते हुए कहते हैं कि नव उदारवाद की किसी भी कीमत पर लाभ कमाने की मानसिकता ने इस मूलभूत चिंता का समाप्त करने की कोशिश की, हालांकि वह पूरी तरह सफल नहीं रहा। युसुफ़ ख़ान यानी कि दिलीप कुमार ने अपने किरदारों में इसी तरह के मूल्यों को अभिनय में बांधा, हालांकि उनको भी दक्षिणपंथी ताक़तों के हमलों से जूझना पड़ा। उनके कई प्रशंसनीय और सराहे गए किरदार वो थे, जिन में वो एक हिंदू का किरदार करते हुए, भजन गाते हुए, इस विस्तृत देश को पेश करते हैं। इसके बावजूद भी गंगा जमुना के अंतिम दृश्य में उनके द्वारा मरणासन्न स्थिति में कहे गए हे राम के संवाद को लेकर पैदा किया गया विवाद, उनके झुकने के बाद ही थमा। भट्ट ने भारत-पाकिस्तान के बीच की खाई को पाटने के लिए साझा निर्माण के अपने सफल प्रयासों के बारे में भी बात की, जिसकी वजह से नफ़रत के सौदागरों ने उनको आईएसआई का एजेंट कह डाला। भट्ट पूछते हैं, आप घृणा से कैसे निपटेंगे? आपको इसके नुकसान झेलने होंगे और याद रखना होगा कि ये वो कीमत है, जो आप आप होने के लिए चुकाते हैं। महात्मा गांधी तक इन लोगों के निशाने पर थे।         

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